सामाजिक यातनाओं से मुक्ति की तरफ इशारा
सामाजिक यातनाओं से मुक्ति की तरफ इशारा
कथाकार श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की प्रिय कहानियों का संग्रह ‘मेरी प्रिय
कहानियाँ’ नाम से आ गया है, इसमें कुल नौं कहानियां
संकलित हैं। जो अलग-अलग पृष्ठभूमि को अपने में समाहित किए हुए हैं। यह कहानियां
लेखक को प्रिय क्यों है, उसका कारण भी बहुत स्पष्ट लेखक
ने भूमिका में बताया है। कहानियों के प्रिय होने का कारण बताते हुए श्यौराज सिंह
‘बेचैन’ ने लिखा है कि ’ये कहानियाँ केवल समय बिताने या मन बहलाने भर का साधन
मात्र नहीं हैं। संविधान सापेक्ष सामाजिक दायित्वबोध की दिशा में रचनात्मक योगदान
हैं।’ लेखक ने भूमिका में कहानी आंदोलनों पर संक्षेप में ही सही पर चर्चा की है और
नई कहानी आंदोलनों पर सवाल उठाएं हैं। नई कहानी आंदोलन पर लिखते हुए श्यौराज सिंह
बेचैन ने लिखा है कि, ‘नई कहानी भी उतनी नई नहीं थी कि
ठाकुर का कुआं की गंगी, कफन के घीसू, माधव स्वयं अपनी कहानी कह पाते।’ सवाल यही है कि नई कहानी में नया क्या था?
नामवर सिंह ने परिन्दे को नई कहानी की पहली कृति कहां जरूर पर उसमें नया
क्या है, इस पर कोई चर्चा नहीं की है। आखिर नयी कहानी
को क्यों कहें नई कहानी? रमेश उपाध्याय के दिए गए
इंटरव्यू में भी नामवर सिंह कोई बात न कर आगे बढ जाते हैं। नामवर सिंह रूसी कथा
साहित्य और सामाजिक चिंतन में बार बार सुनायी पड़ने वाले चेखव के कथन ‘हम क्या करें’ का सवाल उठाते जरूर हैं, लेकिन
हिंदी कहानी में आ रहे सामाजिक प्रश्न, अछूते जीवन
प्रसंग और जीवन की विविधता उन्हें अजीबोगरीब और विस्मयकारी लगती हैं। उन्हें रूसी
समाज की सर्वहारा क्रांति की भनक समझ में तो आ रही थी पर हिन्दुस्तान में दलितों
और स्त्रियों के प्रश्न अजीबो गरीब लग रहे थे। इसी समझ के चलते ही वे परिंदे को
नयी कहानी का खिताब दे बैठते हैं। जहां कथाकार पाठकीय सहानुभूति लेने के लिए लतिका
को अतीत से मुक्त होने ही नहीं देता है। नई कहानी असल में नए प्रसंगों के साथ
हिन्दी कथा साहित्य में प्रवेश करती है। कमलेश्वर के शब्दों में कहें तो ‘वह पहले जीवनानुभव है उसके बाद कहानी है।’ जिसमें पहली बार स्त्री सामंती
मूल्यों को चुनौती दे रही थी। अब वह घर की चहारदीवारी से बाहर मुख्य भूमिका में आ
रही थी और साथ ही नए जीवनानुभवों को समेटे हुए कहानियों में दलित प्रश्न उभरकर आ
रहे थे। इन सामाजिक विविधताओ नें कहानी को सही अर्थों में सम्पूर्णता में विस्तार
दिया है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ इन्ही सामाजिक विविधताओं के कथाकार हैं। उनकी रचना
का प्रस्थान बिंदु जीवन से साहित्य की ओर है, जैसा कि
कमलेश्वर ने नयी कहानी के संदर्भ में कहा है। सही अर्थों में कहें तो दलित और
स्त्री प्रश्नों की कहानियां ही नयी कहानी हैं।
प्रिय कहानियों के इस संग्रह की पहली कहानी ‘क्रीमी लेयर’ है। आज जब समाज
और राजनीति में आरक्षण को लेकर घमासान मचा हुआ है और आरक्षित तबके के साथ लगातार
भेदभाव किया जा रहा है, सुनियोजित तरह से आरक्षण के
खिलाफ समाज में एक जहर घोला जा रहा है तो ऐसे समय में यह कहानी आरक्षण का एक नया
पाठ प्रस्तुत करती है। यह सिर्फ आरक्षण व क्रीमी लेयर तक ही सीमित नहीं है बल्कि
उसके पीछे चल रहे तमाम हथकड़ों को भी उजागर करती है कि किस तरह सुनियोजित तरीके से
शिक्षा का व्यावसायीकरण करके दलितों, आदिवासियों को शिक्षा
से वंचित किया जा रहा है ताकि योग्यता अयोग्यता का कोई प्रश्न ही न रहे। विकास के
नाम पर बनती सरकारों ने दलितों व आदिवासियों के प्रश्न को कितना हल किया है, उसके भी चित्र जगह जगह मिलते हैं। उसकी एक बानगी देखिए, ‘कितनी पंचवर्षीय योजनाएं गुजर गई, एससी एसटी में
भूमि वितरण संकल्प आज भी पूरा नहीं हुआ।’ दलित राजनीति में आए भटकाव भी कहानी के
केन्द्र में हैं। किस तरह विकास के नाम पर किए जा रहे शहरीकरण में दलितों
आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं है, कहानी में यह बात
समानांतर चलती रहती है। कहानी की मुख्य किरदार प्रणीता अनायास ही नहीं कहती है कि, ‘मैं क्यों मायावती के साथ खड़ी होऊं? वे कौन सी
गांव-गांव में हुई सरकारी स्कूलों की हत्याएं रोक पाई? उन्हीं
के समय में लखनऊ से लेकर गाजियाबाद तक विकसित की गई आवास विकास कालोनियों में कहीं
कोई सरकारी स्कूल खोला मायावती ने?’
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ कहानियों में पितृसत्ता के तमाम हथकंड़ो को भी उजागर
करते हुए चलते हैं। ‘क्रीमी लेयर’ कहानी में वेद प्रणीता से अनुत्तरित हो जाने के
बाद उसकी यौन शुचिता पर हमला करना शुरू कर देता है, वह
यहीं नहीं रूकता बल्कि उसकी मां के संबंधों को भी परिभाषित करता है। जाति व
पितृसत्ता के गठजोड़ का खतरनाक रूप कहनी ‘बस्स इत्ती सी
बात’ में स्पष्ट रूप से उभरकर आया है। जाति और पैट्रीआर्की में फंसा व्यक्ति इतना
अमानवीय होता है कि वह किसी भी कार्य को अंजाम दे सकता है। जाति के दंभ में ठाकुर
साहब अपनी पहली पत्नी की हत्या सिर्फ इसलिए कर देते हैं क्योंकि वह एक दलित जाति
के व्यक्ति के साथ शादी कर ली थी।
‘जांच की आंच’ कहानी दंगे में पाए गए बालक की जात खोजने की कहानी है पर यह
सिर्फ दंगे और बालक की जाति खोजने तक सीमित न होकर समसामयिक घटनाओं से जुड़ जाती
है। कहानी का फलक जाति के आधार पर प्रताड़ित कर डॉ आँचल मडवी की हत्या और भोपाल में
हुयी जोमैटो की घटना को भी रेखांकित करती है तो वहीं पढ़े लिखे उस बड़े वर्ग को भी
बेपर्दा करती है जो आधुनिक तकनीकों द्वारा खिलाड़ी हिमादास की जाति खोजने में मग्न
थे।
‘लवली’ में रंग-भेद, नस्ल-भेद व जाति-भेद का
बहुत ही मार्मिक चित्रण हुआ है। एक तरफ कहानी में कर्मकांड़ों का मुखरता से विरोध
कर स्त्री को आर्थिक रूप से सशक्त होने की वकालत की गयी है तो दूसरी तरफ कहानी में
संवैधानिक अधिकारों से न्याय पाने के लिए संघर्ष का रास्ता अख्तियार करने की बात
है। यह कहानी सौंदर्य की रंगभेदीय धारणा पर कुठाराघात करती है और स्त्री वस्तु के
रूप में तब्दील न हो इसके लिए सचेत करती है। श्यौराज सिंह बेचैन अपनी कहानियों में
स्त्री को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की लगातार कवायद करते हैं ताकि वे अपने
जीवन के फैसले खुद ले सके। विवेक की बेटी यूं ही नहीं कहती है कि, ‘मैं तो औरत को इकॉनोमिकली इंडिपैंडैंट देखना चाहती हूँ। मैं कभी किसी से
कुछ न मांगूंगी जो खरीदना होगा खुद कमा कर खरीद लूंगी।’
गांव व शहर में घट रही छोटी छोटी घटनाओं को केन्द्र में रखकर श्यौराज सिंह
‘बेचैन’ अपनी कहानियों का ताना-बाना बुनते हैं। जिसमें कई बार कहानियां खुद उनके
जीवन से गहरी जुड़ी हुयी होती हैं, जहां लेखक अक्सर एक
नैरेटर की भूमिका में मौजूद रहता है। ‘कलावती’, ‘सिस्टर’ और
‘अस्थियों के अक्षर’ इसी तरह की कहानियां हैं। ये कहानियां समाज की स्थिति से अवगत
कराती ही हैं, वहीं लेखक की रचना प्रक्रिया को भी समझने
में मदद प्रदान करती हैं। ‘कलावती’ कहानी आजादी के मूल्यों पर सवाल खड़े करती है, जो आज भी अनुत्तरित बने हुए हैं। क्या दलित आदिवासी जातियों को सामंती
व्यवस्था से आजादी मिली? क्या सभी को रोजगार की आजादी
मिली? यह कहानी ऐसे तमाम सवालों को ऐड्रेस करती है साथ
ही बेमेल विवाह की समस्या और उनके कारणों को भी रेखांकित करती है।
‘रावण’ एक कलाकार की कहानी है,जो उस रोमेन्टसिज़्म को
तोड़ती है कि गांव में सब कुछ अच्छा है। आज भी गांवों में संघर्ष बहुत है, गांव आदिवासियों दलितों के लिए कब्रगाह है। वहां आज भी रोजगार का प्रश्न
मुंह बाये हुए खड़ा है, जातीय भेदभाव बरकरार है, आजादी के इतने वर्ष बाद भी छुआछूत उसी तरह विद्यमान है, संविधान और कानून के बरक्श आज भी गांवों में जाति की अपनी सत्ता है, जैसी तमाम बातों को यह कहानी एड्रेस करती है। इस कहानी के पृष्ठभूमि में
एक कलाकार है, जो रामलीला में रावण की भूमिका में है और
दलित जाति का है। दलित जाति के व्यक्ति को रावण के किरदार निभाने पर राम कि दंबंग
जाति की आतातायी सेना उस पर टूट पडती हैं और उसे भौतिक जीवन में अधमरा बना देती
हैं। कहानी गांव से हो रहे पलायन को भी रेखांकित करती है।
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कहानियों में सामाजिक यथार्थ गहरे रूप में दिखाई देता हैं। कहानी में यातनाओं का चित्रण हताशा और निराशा उत्पन्न नहीं करता बल्कि समाज को बारीकी से समझने की दिशा और संघर्ष की प्रेरणा देता है। यह कहानियाँ सभ्यता के आवरण में लिपटे हुए आधुनिक समाज के वर्णाश्रमी चेहरे को बेपर्दा करती हैं। कहानियों में बार-बार शिक्षा की तरफ इशारा सामाजिक यातनाओं से मुक्ति की तरफ इशारा है। ‘संघर्ष’ श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कहानियों का मोटो हैं। रावण कहानी में आया यह वाक्य कि ‘हम अपने मोर्चे पर लड़ेंगे’ इस बात को स्पष्ट करता है। इन कहानियों में आंबेडकर के प्रसिद्ध कथन शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो की अनगुंज सुनायी देती है।
-----------शुभम यादव, शोध छात्र, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली मो.: 9473930135
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